"कारवां" a poem by Aditya Nair
![Image](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPli-hSRN7ec5M08Yikdn77R8OTBm5MvGx-pizjRhGleNICdWK1Y1CmM1nhjSiZv4glaCeKwv2kBLlBp8KUYpO1pmMS5eg1rWZQBTjOLSojf9QIJ9kwHoOVFblPhimzc7QwHB4abhgWbJb/s1600/1647425980548903-0.png)
मैं कल का मुसाफिर आज बन गया हूं एक बंजारा| जब घर से निकला तब समर्थ था, अब हूं लाचार सा इक बेचारा| जब पहले कदम लिए तब उम्मीद से था मैं भरा, और अब ये भी नहीं जानता की किस राह पर हूं मैं खड़ा| अब हर मोड़ एक नया सवाल लेकर आता है, न जाने क्या जवाब ये मुझसे चाहता है| हर रास्ता अब जाना पहचाना सा लगता है, लेकिन अनजान चेहरों को देख ये भ्रम भी टूट बिखरता है| अब मंज़िल का कोई ठिकाना नहीं, और जल्दी में मुझे कहीं जाना नहीं| अब इतना चल दिए हैं तो थोड़ा और सही, क्या पता एक नई राह दिख जाए क्या पता एक नई मंज़िल मिल जाए|