"कारवां" a poem by Aditya Nair


मैं कल का मुसाफिर आज बन गया हूं एक बंजारा|
जब घर से निकला तब समर्थ था,
अब हूं लाचार सा इक बेचारा|

जब पहले कदम लिए तब उम्मीद से था मैं भरा,
और अब ये भी नहीं जानता
की किस राह पर हूं मैं खड़ा|

अब हर मोड़ एक नया सवाल लेकर आता है,
न जाने क्या जवाब ये मुझसे चाहता है|
हर रास्ता अब जाना पहचाना सा लगता है,
लेकिन अनजान चेहरों को देख
ये भ्रम भी टूट बिखरता है|

अब मंज़िल का कोई ठिकाना नहीं,
और जल्दी में मुझे कहीं जाना नहीं|
अब इतना चल दिए हैं तो थोड़ा और सही,
क्या पता एक नई राह दिख जाए
क्या पता एक नई मंज़िल मिल जाए|

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